राजस्थान में जारी सियासी संकट बरकरार है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थन वाले विधायकों ने शुक्रवार को पांच घंटे तक धरना दिया और राज्यपाल कलराज मिश्र से कहा कि वह बहुमत परीक्षण के लिए एक विशेष विधानसभा सत्र बुलाएं।
राजनीतिक विशलेषकों का मानना है कि मुख्यमंत्री बिल के बहाने व्हिप लाकर बागी विधायकों को वोट करने के लिए मजबूर करेंगे। फिलहाल बागी विधायक कांग्रेस के सदस्य हैं, ऐसे में विधानसभा में अनुपस्थित रहने और बिल का विरोध करने की स्थिति में वे स्वतः अयोग्य हो जाएंगे।
वहीं, राजस्थान के पूरे घटनाक्रम के बीच एक कानून का नाम फिर चर्चा में आया जिसका नाम है दलबदल कानून। यह कानून विधायकों और सांसदों के उनकी जरूरत, सुविधा और फायदे के लिए जल्दी-जल्दी पार्टी बदलने पर रोक लगाता है। आइए जानते हैं कि यह कानून क्या है।
53 साल पहले उठी दल-बदल कानून की मांग
दल-बदल विरोधी कानून की आवश्यकता मुख्य रूप से 1967 के बाद महसूस हुई। साल 1967 से पहले तक, देश में दलबदल के लगभग 500 मामले थे और इनमें से अधिकतर मामले राज्य स्तर पर थे। इनमें से अधिकतर मामलों के पीछे की वजह राजनीतिक विचारधारा थी।
देश में चौथे आम चुनावों के बाद, दल-बदल ने अभूतपूर्व मोड़ ले लिया। विधायक और सांसद अपने राजनीतिक भविष्य को देखते हुए पुराने दल को छोड़कर नए दल में शामिल होने लगे। वहीं, जब उनसे किए गए वादे पूरे नहीं हुए तो उन्होंने फिर पार्टी बदल ली। साल 1967 से 1972 के दौरान लगभग 50 फीसदी विधायकों ने कम से कम एक बार अपनी पार्टी का दामन छोड़ा।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण हरियाणा में देखने को मिलता है। यहां एक विधायक गया लाल ने साल 1967 में एक ही दिन में लगभग नौ घंटे के भीतर कांग्रेस में शामिल होने के लिए संयुक्त मोर्चा छोड़ दिया था और फिर से संयुक्त मोर्चा में वापस जाने के लिए कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था।
इसके बाद 1985 में नेताओं की ऐसी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए संविधान की दसवीं अनुसूची में उपबंध को जोड़ा गया था। यह एक विधायक या सांसद को दलबदल के लिए अयोग्य ठहराए जाने के आधार को निर्धारित करता है। इसमें किसी विधायक या सांसद का उसकी पार्टी की सदस्यता छोड़ने या पार्टी के निर्देशों/व्हिप का पालन नहीं करने पर दलबदल माना जाता है।
दल-बदल कानून की तीन बड़ी खामियां
इस कानून में राजनीतिक दलों की संरचना को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है।
कानून के अनुसार, स्पीकर का निर्णय अदालत के कार्य क्षेत्र के बाहर रहेगा, लेकिन फिर भी मामले अदालतों में पहुंच रहे हैं।
राजस्थान संकट में सदन के बाहर विधायकों की भूमिका और अभिव्यक्ति की आजादी का एक नया पहलू सामने आया है, जिसके बाद इस कानून में बदलाव की आवश्यकता है।
आंकड़ों में जानें दल-बदल के मामले
- साल 1967-1972 के बीच लगभग 50 फीसदी विधायकों ने अपनी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी का हाथ थामा।
- साल 1967-1968 के बीच 438 टूट के मामले सामने आए।
यूपीए के कार्यकाल में विवादित घटनाक्रम
- मेघालय, 2009: मेघालय प्रगतिशील गठबंधन (एमपीए) का नेतृत्व दोनकपुर रॉय कर रहे थे। उनकी सरकार ने साल 2009 में विधानसभा अध्यक्ष के वोट डालने के बाद विश्वास मत जीता था। सरकार द्वारा विश्वास मत जीतने के बाद भी राज्यपाल आरएस मूसाहारी ने उसे राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता बताया और राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा की।
- झारखंड, 2005: झारखंड में साल 2005 में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति उत्पन्न हुई। तत्कालीन राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने शिबू सोरेन को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई। हालांकि, सोरेन विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने में विफल रहे और नौ दिनों बाद उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद 13 मार्च, 2005 को अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी।
- कर्नाटक, 2010: यूपीए-1 के दौरान केंद्रीय मंत्री रहे हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया। उस दौरान उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की बहुमत वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा की।
- एनडीए के कार्यकाल में विवादित घटनाक्रम
- अरुणाचल प्रदेश, 2016: अरुणाचल प्रदेश की 60 सदस्यों वाली विधानसभा में भाजपा के 11 विधायक थे, इसके बाद भी उसने सरकार का गठन कर लिया। मुख्यमंत्री पेमा खांडू के नेतृत्व वाली पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल प्रदेश के 43 में से 33 विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया। इसके बाद भाजपा ने राज्यपाल से स्वीकृति मिलते ही सरकार बना ली।
- गोवा, 2017: कांग्रेस ने 2017 के गोवा विधानसभा चुनाव में 16 सीटें हासिल की और वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। वहीं, भाजपा को 14 सीटें मिलीं। इसके बाद भी भाजपा ने निर्दलीय विधायकों के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश किया।
मणिपुर, 2017: मणिपुर की 60 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस को 28 और भाजपा को 21 सीटें हासिल हुईं। इसके बाद भाजपा ने कुल 32 विधायकों के समर्थन से सरकार बना ली। - कर्नाटक, 2019: कर्नाटक विधानसभा चुनावों में भाजपा को 104 सीटों पर जीत हासिल हुई। जबकि कांग्रेस को 80 और जेडीएस को 37 सीटें मिलीं। कांग्रेस ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। इसके बाद कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन किया और कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने। हालांकि, कुछ दिनों बाद 11 (8 कांग्रेस और 3 जेडीएस) विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। इस तरह सरकार गिर गई और भाजपा ने फिर बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व में सरकार का गठन किया।