रेपो रेट
दैनिक कामकाज के लिए बैंकों को रुपयों की जरूरत पड़ती है। ऐसे में उनके लिए देश के केंद्रीय बैंक यानी भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से ऋण लेना सबसे आसान विकल्प होता है। इस तरह के ऋण पर रिजर्व बैंक जिस दर से उनसे ब्याज वसूल करता है, उसे रेपो रेट कहते हैं। दूसरे शब्दों में रिजर्व बैंक दूसरे कमर्शियल बैंकों और वित्तीय संस्थानों को जिस दर से पैसा उधार देता है, उसे रेपो रेट कहते हैं।इसका सीधा असर ग्राहकों पर भी पड़ता है।
जब बैंकों को कम दर पर ऋण उपलब्ध होगा, वे भी ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अपनी ब्याज दरों को कम कर सकते हैं। इसी तरह यदि रिजर्व बैंक रेपो रेट में बढ़ोतरी करेगा, तो बैंकों के लिए ऋण लेना महंगा हो जाएगा, और वे भी अपने ग्राहकों से वसूल की जाने वाली ब्याज दरों को बढ़ा देंगे।
रिवर्स रेपो रेट
यह रेपो रेट से विपरीत है। कभी जब बैंकों के पास कामकाज के बाद बड़ी रकमें बची रह जाती हैं, वे उस रकम को रिजर्व बैंक में रख दिया करते हैं, जिस पर आरबीआई उन्हें ब्याज दिया करता है। अब रिजर्व बैंक इस रकम पर जिस दर से ब्याज अदा करता है, उसे रिवर्स रेपो रेट कहते हैं। रिवर्स रेपो वह रेट है, जिस पर दूसरे बैंक रिजर्व बैंक को पैसा उधार देते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात रिवर्स रेपो रेट मार्केट में कैश फ्लो को नियंत्रित करने में काम आती है. जब भी मार्केट में बहुत ज्यादा नकदी दिखाई देती है, आरबीआई रिवर्स रेपो रेट बढ़ा देता है, ताकि बैंक अधिक ब्याज कमाने के लिए अपनी रकमें उसके पास जमा करा दें, और इस तरह बैंकों के कब्जे में मार्केट में छोड़ने के लिए कम रकम रह जाएगी।
नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर)
देश में लागू बैंकिंग नियमों के तहत प्रत्येक बैंक को अपनी कुल कैश रिजर्व का एक निश्चित हिस्सा रिजर्व बैंक के पास रखना ही होता है, जिसे कैश रिजर्व रेशो अथवा नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) कहा जाता है। सीआरआर के जरिए आरबीआई बिना रिवर्स रेपो रेट में बदलाव किए मार्केट से कैशे के फ्लो को कम कर सकता है। सीआरआर बढ़ाए जाने की स्थिति में बैंकों को अधिक बड़ा हिस्सा रिजर्व बैंक के पास रखना होगा, और उनके पास ऋण के रूप में देने के लिए कम रकम रह जाएगी।