‘फेसबुक’ को मैं ‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ कहता हूं, जिसके पठनीय पन्नों में आप सब शुमार हैं। आज मैं समग्र मित्र-समुदाय से अपनी बात कह रहा हूं, इसमें पत्रकार साथी भी शामिल हैं। मीडिया की विश्वसनीयता का ग्राफ आज कहां पर है, इसे आप सब जानते-समझते हैं। साख का स्तर ऐसा स्खलित हुआ है कि सार्वजनिक जगत में यह मान ही लिया गया है कि पत्रकार संदेहास्पद चरित्र का होता है, वह विश्वसनीय नहीं होता, वह दलाल होता है, गलत-सलत धंधे करके धन कमाता है, वगैरह… वगैरह…
सामाजिक उपेक्षा और अपमान की यह बातें उन सारे पत्रकार साथियों की नसों को तेजाब की तरह झुलसाती हैं, जो ऐसे हैं नहीं, लेकिन पत्रकार समुदाय का सदस्य होने के नाते वे भी ताने सुनते हैं और अपमान सहते हैं। मैं भी ऐसे पत्रकारों में शामिल हूं। हम क्यों सुनें गाली, उपेक्षा और अपमान के शब्द? पत्रकारिता को जिन लोगों ने धर्म की तरह चुना और पूरी नैतिक प्रतिबद्धता से पूरा जीवन अनुशासित सिपाही की तरह अपना कर्म किया, वे क्यों सुनें गालियां? इस सवाल को साथ रखते हुए मैं आपको अपने शुरुआती कॉलेज जीवन का एक संस्मरण सुनाता हूं। मैं ट्रेन से जा रहा था, काफी भीड़ थी, बैठने की जगह नहीं थी। एक युवक उसी भीड़ में खड़ा था पसीने से सना, वह बार-बार अपने हाथ में रखी पत्रिका पसीने से बचाने की फिक्र कर रहा था। हमारे साथ ही बैठे एक बुजुर्गवार के पूछने पर उस युवक ने बताया कि उसके हाथ में ‘दिनमान’ पत्रिका है और वह उस पत्रिका के लिए फ्री-लांस के तौर पर खबरें लिखता है। यह कहना था कि यात्री तुरंत इधर-उधर सरक गए, युवक को बैठने का स्थान दिया और देश-दुनिया की बातें होने लगीं। वह जमाना था, जब ‘दिनमान’ पत्रिका हाथ में रखने वाले व्यक्ति को सम्मान से बैठने की जगह दी जाती थी और खबरें लिखने वाले को बुद्धिजीवी मान लिया जाता था। यह बात मेरे दिमाग में ऐसे घर कर गई कि जब मैं एमए का छात्र था, तब मैंने एक लेख लिखा और उसे ‘दिनमान’ में छपने के लिए भेजा, उस वक्त रघुवीर सहाय ‘दिनमान’ के संपादक हुआ करते थे। मेरा लेख काफी संपादित होकर मत-सम्मत वाले पन्ने पर छोटा सा छपा था। मुझे उस दिन जो गर्व और उल्लास हुआ था, वह मेरे लिए आज भी धरोहर की तरह है। उसके बाद तो ‘दिनमान’ में मैं कई बार छपा। इसी तरह का गौरवबोध मुझे ‘जनसत्ता’ दैनिक अखबार और ‘चौथी दुनिया’ साप्ताहिक अखबार में छप कर मिला। बाद में क्रमशः इन दोनों गौरवशाली अखबारों का मैं नियमित रिपोर्टर बना।
ऊपर मैंने जो संदर्भ बताया। वह एक छोटा सा उदाहरण है। ऐसे ढेर सारे संदर्भों से मेरी अनुभव-यात्रा सम्पन्न होने की तरफ अग्रसर है। इसीलिए मैं कोशिश करता हूं कि अपने से कम उम्र के पत्रकार साथियों और नवागंतुक पत्रकार साथियों को इस यात्रा के पड़ावों के बारे में बताता चलूं, शायद कोई काम आए। मेरी यह बात स्व-प्रेरित है, इसके पीछे कोई हित-प्रेरित पहलू निहित नहीं है। अपनी अनुभव-यात्रा को हाजिर-नाजिर करता हुआ मैं यह कह सकता हूं कि पत्रकारिता दायित्विक-धर्म है। यह पेशा नहीं है। जिसने भी इसे पेशा कहा है, उसने इस धर्म को गंदा करने का बहाना ढूंढ़ा है। यह इतना व्यापक है कि इसमें दुनिया के सारे धर्म, रंग, जाति, फिरके, पसंद, नापसंद, आग्रह, पूर्वाग्रह, सीमाएं… सब विलीन हो जाती हैं। पत्रकारिता में गीता-कुरान-बाइबल-गुरुग्रंथ साहिब समेत सभी धर्मग्रंथों के आत्मिक भाव निहित हैं।
पत्रकारीय कर्म को इसी धर्म-दृष्टि से देखिए। मेरी यह बात किसी किताब से लिया गया उधार का उद्धरण नहीं है, यह कोई ‘राष्ट्र के नाम राजनीतिक संदेश’ नहीं है, यह पत्रकारीय विधा में आने वाली नई पीढ़ियों को संकुचित सोच की विचारहीन नस्ल बनाने की साजिश का हिस्सा नहीं है… यह इम्तिहान देने के पहले अपना पाठ याद रखने और कलम दुरुस्त करने की आखिरी सीख देने का भाव है। यह युद्ध में उतरने के पहले योद्धाओं को प्रशिक्षित करने और बख्तरबंद करने की गहरी चिंता का हिस्सा है। यह जीवन की जद्दोजहद में उतरने जा रहे बेटों के लिए रीढ़ और चरित्र मजबूत रखने का आवाहन है… हमने जिन्हें अपना पुरोधा माना, हमने जिन्हें अपना प्रणेता माना, हमने जिन्हें अपना नेता मान कर जिनके आगे घुटने टेक दिए, उन्होंने हमें किस लायक छोड़ा! हमने यह नहीं सोचा और न खुद को क्षूद्र-लोभ से बचा कर अपने नेताओं के काम-काज की मोरल-सोशल-ऑडिट कर पाए। अपनी ही अस्मिता, अपना ही अस्तित्व गंदी बदबूदार नाली में जा धंसा और हम समाज के सबसे घृणित-पेशेवर समझे जाने लगे।
पश्चिम के बड़े राजनीतिक चिंतक थॉमस जेफरसन ने अमेरिका की आजादी का ऐतिहासिक मसौदा लिखा था। जेफरसन अमेरिका के राष्ट्रपति भी हुए थे। जेफरसन का मशहूर कथन है, The government you elect is the government you deserve… यानि, जिस तरह के तुम पात्र होते हो, सरकार उसी तरह की चुनते हो… अपने देश में यह बात काफी पहले कही जा चुकी, ‘यथा राजा तथा प्रजा’, लेकिन आधुनिक लोकतांत्रिक परिदृश्य में इसे ऐसे कहें, ‘यथा जनता तथा नेता’ तो बात सटीक होगी। यानि, जैसी जनता होगी नेता वैसा ही चुनेगी। यह बात पुरानी है। इसे घिसी-पिटी भी कह सकते हैं। यह तोता-रटंत है। ‘शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, जाल में फंसना नहीं’… इसे रटता हुआ तोता-समुदाय हर बार जाल में फंसता है और सींखचों में जीवन गुजारने को अभिशप्त होता है। हमें यह ‘तोता-रटंत’ छोड़ना होगा। अपना अस्तित्व और सम्मान बचाए रखना है तो नीम की पत्ती चबाकर हमें अपना नशा तोड़ना होगा। लोभ-लिप्सा का नशा भौतिक-भोग तो देता है, लेकिन यह आत्मसम्मान का सुखद-योग नहीं देता। यह अपनी नजर के साथ-साथ दूसरों की नजर से भी प्रतिष्ठा हर लेता है। यह हमें इतना पंगु कर देता है कि हमें आत्मविश्लेषण करने लायक भी नहीं छोड़ता… यही हुआ है, इससे सतर्क रहें…
नई पत्रकारीय-पीढ़ी को सचेत होने की कामना के साथ समस्त साथियों को ढेर सारी शुभकामनाएं… प्रभात रंजन दीन