वेश्या बड़ा ही घृणात्मक शब्द है। तथाकथित सभ्य समाज के लिये एक बहुत ही बड़ा कलंक है। वेश्यावृत्ति को कभी भी समाज में कोई स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। वो अलग बात है कि बेहद कुलीन, समाज में सभ्य समझे जाने वाले लोग, संस्कृति के तथाकथित रक्षक चुपचाप अपनी हवस मिटाकर सुबह समाज की मुख्य धारा में शामिल हो जाते हों और अपमान/गंदगी बच जाती है वेश्या के झोले में।
संभव है कि स्त्री ने यह कार्य चुना होगा मजबूरी में/मर्जी से या फिर जबरन। खैर….इस लेख का आशय ना तो इसके कारणों की समीक्षा करना है और ना ही कुलीनों को आइना दीखाना है।
मैं भारत के किसी एक कोने की बात नहीं कर रहा। यहां तक कि किसी जिले की भी बात नहीं कर रहा। एक छोटा सा कस्बा ही क्यों ना हो! छोटे या बड़े स्तर पर किसी ना किसी रूप में यह पेशा चल रहा है। चोरी छिपे ही सही, लेकिन समाज के तथाकथित ठेकेदारों का बना ऐशगाह जो पूरी रात जानवर बने जिस्म नोंचते हैं और सुबह होते ही धर्म-देश-समानता के ठेकेदार बन जाते हैं।
अमूमन इस धंधे में सिर्फ देह की कीमत होती है। देह जो एक उम्र के बाद पुरुषों के लिये आकर्षण की वस्तु नहीं रह जाती। ये बेहद सोचनीय स्थिति है कि एक उम्र के बाद इन वेश्याओं का क्या होता होगा? समाज इन्हें कभी अपनायेगा नहीं, घर होता तो ये बाजारू ही क्यों बनतीं, पुनर्वास की कोई व्यवस्था है नहीं, कोई काम कर नहीं सकतीं और जिस चीज को बेच रही थी वो अब पुरुष समाज के लिये बेकार पड़ चुकी है। अगर कुछ पैसा बचाया भी होगा तो कबतक चल सकता है? संभव है कि कुछ कोठे की मालकिन बनकर अपना बिजनस चलायें लेकिन, ये बेहद कम होता होगा।
इसके अलग बात कहें तो सोचियेगा कि छोटे से बड़े शहरों में असहाय/बेसहारा भिखारी, चाहे बच्चे हों/पुरूष हों/महिला हों, जिनका कोई अता-पता नहीं कि अचानक कहां से आ गये, वो अचानक ही गायब हो जाते हैं। किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं कि यह सोचे कि वो अचानक से कहां गायब हो गये।
इंटरनेट पर उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से अधिकतर वेश्यायें एक उम्र के बाद बेहद नारकीय स्थिति में पहुंच जाती हैं। उन्हें भीख तक मांगकर अपना जीवन यापन करना पड़ता है।
ह्यूमन ट्रैफिकिंग और फ्लैश ट्रेडिंग की गुत्थी सुलझाना पुलिस और अन्य एजेंसियों के लिये बेहद मुश्किल कार्य है। एक तो लापता की रिपोर्ट दर्ज करने कोई नहीं आता दूसरा पब्लिक का सहयोग तो बिल्कुल ही असंभव है और ऐसे में आराम से आसान शिकार को टारगेट करते हुये फ़्लैश ट्रेड माफिया अपना काम करते हैं और इंटरनेशनल सिंडिकेट के जरिये अपने काम को अंजाम देते हैं। फिर भी यह सुरक्षा एजेंसियों की काबिलियत है कि समय-समय पर ऐसे रैकेट का पर्दाफाश भी होता है।
इन असहायों की कोई सुनने वाला या इनके बारे में कोई सोचने वाला नहीं होता। इनकी ना तो जाति होती है ना धर्म और ना ही ये वोट होते हैं। जबतक चमड़े की चमक थी, लोग चूसते रहते हैं और बाद में किसी गटर के कोने में इनकी जिंदगी गुजरती है और फिर इनका दिल/किडनी किसी रईस की जिंदगी बचाते हैं।
मौर्यकाल में वेश्यावृत्ति पर टैक्स लिया जाता था। ये सुनने में आपको अजीब लग सकता है। लेकिन चाणक्य यह जानते थे कि समाज में इस व्यवस्था को कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता है। सो उन्हौने इसे सांगठनिक ढांचा प्रदान किया। मतलब जैसे शराब के दुकानों को लाइसेंस दिया जाता है, वैसे ही इसे भी सरकारी संरक्षण मिला और उस समय के हिसाब से यह लीगलाइज्ड हुआ।
विश्व के कई देशों में यह आज लीगल है। लेकिन भारतीयों को रात में कुछ और ,दिन में कुछ और रहने की आदत है। जैसे हर कोई पोर्न मूवी देखता है/मोबाइल में डाउनलोड करता है लेकिन सार्वजनिक जगह पर कहेगा कि यह तो बड़ी गंदी चीज हैं । कई तथाकथित संभ्रांत लोग कोठे जाते हैं/कॉल गर्ल बुलाते हैं और सुबह दूसरों को चरित्र प्रमाणपत्र बांटते नजर आते हैं।
मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि भारत में भी इसे लीगल कर देना चाहिये। सरकार इसे लाइसेंस देकर एक सांगठनिक स्वरूप दे सकती है। इसपर लगाये गये टेक्स से वेश्याओं के पुनर्वास कार्य किये जा सकते हैं, जोर-जबरदस्ती से किसी को इस धंधे में झोंकना बंद हो सकता है। यह और भी उचित होगा कि ग्राहकों को काउंटर पर एंट्री आधार कार्ड लिंक करवाकर दी जाये ताकि चरित्र की परिभाषा जो रात में थी वही सुबह भी रह सके और सबसे बड़ी बात होगी कि इन्हें फ्लैश ट्रेडिंग के इंटरनेशनल सिंडिकेट से बचाया जा सकेगा और पुलिस का काम भी आसान होगा।
वेश्या भले ही एक गाली लगती है, लेकिन अगर मैं बर्बाद ना होता तो कोठा भला कैसे आबाद हो सकता था? जान की कीमत जान ही होती है चाहे किसी की भी क्यों ना हो ? जो जाति-धर्म-दल-केरल-प्रगतिशीलता और फेमिनिज्म से फुर्सत मिले तो इन मुद्दों पर भी सोचियेगा।
छीछालेदर से क्रांति नहीं आती, पहले चिराग जलाना होता है जिसमें अक्सर जलानेवाले के हाथ तक जल जाते हैं।