नई दिल्ली: जिस देश में धर्म विशेष के भीतर अनेक रंग लिये उसी धर्म के मर्म हों,जिस देश की भौगोलिक बनावट के ढंग एक दूसरे से मेल नहीं खाते हों,जिस देश में जीवन-मृत्यु और ईश्वरीय अवधारणाओं को लेकर अलग-अलग मत हों और जिस देश के खान-पान से लेकर वेश-भूषा तक पारिभाषित कर पाना संभव नहीं हो,इसी मुमकिन-नामुमकिन से दिखने वाली भिन्नताओं के संतुलन से भारत बनता है और इन्हीं विभिन्नता की स्वीकार्यता में ही इस देश की एकता का दर्शन पलता है।
यह दर्शन आज भी अनेक तरह के विचारों के उदार घर्षण से एक बिल्कुल ही जुदा दर्शन को पैदा होने की ज़मीन देता है। यहां एक ही समय में मटरगश्ती करते,उपभोग से अघाये लोगों का मॉडर्न इंडिया है; मध्य युगीन नींद में ऊंघता मॉडर्न बनने के सपने पालता हिन्दुस्तान है; प्रकृति में कुछ निहारता-ढूंढता आर्यावर्त है। यहां एक ही साथ कबीर से लेकर अमीर बनते लोगों की अनगिनत श्रृंखला है और इन्हीं श्रृंखलाओं के किसी मोड़ पर वामपंथ,दक्षिणपंथ जैसी दिखने वाली विचारधारायें भी है और नहीं दिखने वाली ऐसी असंख्य सोच है,जो इन दोनों के बीच भी है और इन दोनों से एकदम से अलहदा भी।
यह प्रक्रिया पहले भी निरंतर थी,आज भी जारी है। इन विविधताओं को किसी एक प्रशासनिक और संवैधानिक ढांचे में ले आना और उनका इसी छतरी के नीचे चले आना किसी चमत्कार से कम नहीं है। यही कारण है कि ऑस्ट्रेलियाई इतिहासकार ए.एल बॉशम जब भारत को लेकर अपनी किताब लिखते हैं,तो उन्हें अपनी किताब को लेकर इससे अच्छा नाम सूझता ही नहीं ; “वंडर दैट वाज़ इंडिया” यानी “अद्भुत् भारत”।
इस देश में क्रूर से क्रूर और उदार से उदार शासक-प्रशासक से लेकर तार्किक-अतार्किक,ईश्वरवादी-अनीश्वरवादी चलन-प्रथाओं का भी अद्भुत् चलन है।इन विविधाओं को स्वीकार लेने पर हमें अपने इस अद्भुत् भारत पर गर्व होता है,इन्कार करने पर हम इस अद्भुत् भारत पर शर्म महसूस कर लेते हैं।लेकिन इस गर्व और शर्म से निर्विकार यह अद्भुत् भारत अपनी धीमी मगर शास्वत चाल से लगातार अपने सफ़र में है।यहां जाति,धर्म,पंथ,संप्रदाय,समाज,कुल,परिवार और आम व्यक्ति में भी ठहराव नहीं है।यही कारण है कि इतिहास और संस्कृति की इस विविधता में जिसने भी मोनोटोनी लाने की कोशिश की,वह चला नहीं,ठहरकर टाट बन गया।
लगभग पांच सौ साल के तुर्क,अफ़ग़ान शासकों के दौर में यह इस्लामिक मुल्क का हिस्सा नहीं हो पाया;दो सौ सालों के अंग्रेज़ों की हुक़ूमत के दौरान यह क्रिश्चन वर्ल्ड का पार्ट भी नहीं हो पाया। प्राचीनकाल के शासकों के दौर में भी यह हिन्दू राष्ट्र नहीं था।यह शुद्ध रूप से भारत ही था।ऐसा भारत,जहां नई-नई सोच की अपनी करवटें रोज़ बदलती रही हैं,वह आज भी बदल रही है।अपनी विविधता के संदर्भ में इसका रोज़ बदल जाना इतना सूक्ष्म है कि इसे स्थूल देखने की कोशिश करने वालों के हिस्से में सिर्फ़ ‘अद्भुत् भारत’ ही आता है। भारत के इसी अद्भुत् चरित्र के साथ अगर सियासत भी अपना चरित्र बदल लेती है तो ठीक,वर्ना यह अद्भुत् भारत उसी नहीं दिखने वाली रफ़्तार से यहां की राजनीति भी बदल देता है।
लालू प्रसाद यादव की राजनीति के उत्थान और पतन की कहानी इसी अद्भुत् भारत की अहम कहानी है। लगभग तीन दशक गुज़र जाने के बाद लालू प्रसाद यादव से अगर यह अपेक्षा की जा रही है कि 90 के दशक के सामाजिक बदलाव का वह नायक अपनी उसी शैली और तेवर से भारतीय राजनीति में तूफ़ान खड़ा कर लेंगे,तो फिर हम उस अद्भुत् भारत के चरित्र को समझने में भूल कर रहे हैं,क्योंकि भारत अपने उसी अद्भुत् चरित्र के साथ तीन दशक आगे बढ़ चुका है,जिसमें पिछड़ों-दलितों के दर्द का चरित्र बदल चुका है,कुछ नयी तरह के दर्द अपने आकार ले लिये हैं और ख़ुद लालू प्रसाद यादव अपनी राजनीति के बदौलत बनाये ऐश्वर्य के झरोखों से सामाजिक हाशिये पर रेंगते नागरिकों के अहसास के आस-पास भी नहीं हैं; कभी सवर्णों या विशेषाधिकार प्राप्त जातियों,समुदायों के बीच पुकारे जाने वाला ‘ललुआ’ अब लालू प्रसाद यादव या फिर ‘लालू जी’ हो गये हैं।
जिनकी चिंता जबतक ‘ललुआ’ करता रहा,वह उनका नायक रहा, ‘ललुआ’ जबसे लालूजी हो गया,तबसे उन्हें किसी ऐसे ‘ललुआ’ की तलाश है,जो उनकी तरह परेशानियों को जीता हो,उनकी तरह अपनी पीड़ा को गाता हो,उनकी तरह टीस को अपने फटे कपड़ों पर टांकता हो।‘ललुआ’ तुम इतिहास में दर्ज एक ऐसा नायक हो,जिसे स्वतंत्रता के संघर्ष के गीतों में गाया जायेगा
;ललुआ,तुम राजनीति शास्त्र का एक ऐसा मोड़ हो,जिसके बाद सांसदों और विधायकों का जाति और समुदायगत चरित्र बदल गया था।मगर ‘लालू जी’ अब आपको अपने उसी अतीत के ‘ललुआ’ की निभायी गयी महान क्रांतिकारी भूमिका से संतुष्ट रहना होगा,क्योंकि आपके नये संस्करण यानी ‘लालू जी’ को अब अपने राजत्व की चिंता है,समृद्धि को जीने वाले अपने बेटों को राजनीति में फिट करने की आकुलता है;वंचितों का ब्रैकेट अब आपके पूर्व संस्करण ‘ललुआ’ के समय से कहीं ज़्यादा जटिल हो गया है,जिसमें व्यावहारिक इस्लाम और हिन्दुू समाज की वर्णव्यवस्था की सामाजिक पवित्रता से धकियायी गयी जातियां हैं,तो नयी अर्थव्यवस्था के शिकार हर धर्म और जातियों के लोग भी हैं।वंचितों की लड़ाई अब जाति और धर्म के खांचे से निकलकर अर्थव्यवस्था के चौराहे पर भी लड़े जाने की मांग करती है ।उस जटिलता में फंसे वंचितों को आवाज़ देने वाले आज उस ‘ललुआ’ का इंतज़ार है,जो इन्हीं वंचितों की तरह के हालात से दो-चार हो ! लालू जी,आपसे छिटककर शहीद हो चुके उस ‘ललुआ’ को ग्रांड सैल्युट,जिसकी यादें आज भी वंचितों के लिए ताक़त और महान प्रेरणा है !!!