लोक आस्था का महापर्व छठ, जानिए क्यों और कैसे मनाया जाता है

Sidharth Gautam
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छठ मईया और भगवान भास्कर का संबंध भाई-बहन का है, इसीलिए छठ मईया और सूर्य देवता की पूजा एक ही दिन की जाती है। खास तौर से छठ पूजा का प्रचलन पूर्वी भारत में है। बिहार के साथ-साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश,दिल्ली, झारखंड समेत देश के अन्य क्षेत्रों में भी छठ का त्यौहार लोग मनाते हैं।

 

सूर्योपासना का महापर्व छठ

सूर्योपासना का महापर्व छठ पूर्वी भारत का मुख्य त्यौहार है। उत्तर प्रदेश और बिहार में छठ पूजा को डाला छठ के नाम से भी जाना जाता है। इस पूजा में भगवान भास्कर (सूर्य) की अराधना एंव उपासना का विषेश महत्व है। यह एक मात्र व्रत है जिसमें सूर्य भगवान के उदय एंव अस्त होने पर अराधना की जाती है। । छठ पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी अर्थात दिपावली के ठीक छः दिन बाद मनाया जाता है। सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण ही इसे छठ कहा गया है।

चार दिनों का महापर्व छठ 

चार दिनों तक चलने वाला यह पर्व बड़ा ही कठिन है। इसमें शरीर और मन को पूरी तरह साधना पड़ता है। इसलिए इस पर्व को हठयोग भी माना जाता है। इस लम्बे अंतराल में व्रतधारी पानी भी ग्रहण नहीं करते। छठ पूजा के पहले दिन ‘नहाए-खाए’ का रिवाज है। इसमें व्रती पवित्र गंगा में स्नान करने के बाद गंगा जी के जल से ही प्रसाद बनातीं हैं। नहाए-खाए के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को खरना किया जाता है। पंचमी को दिनभर खरना का व्रत रखने वाले व्रती शाम के समय गुड़ से बनी खीर, रोटी और फल का सेवन प्रसाद रूप में करते हैं। व्रती 36 घंटे का निर्जला व्रत करते हैं। व्रत समाप्त होने के बाद ही व्रती अन्न और जल ग्रहण करते हैं। खरना पूजन से ही घर में देवी षष्ठी का आगमन हो जाता है। इस प्रकार भगवान सूर्य के इस पावन पर्व में शक्ति व ब्रह्मा दोनों की उपासना का फल एक साथ प्राप्त होता है।

The Chhath Puja

षष्ठी के दिन घर के समीप ही किसी नदी या जलाशय के किनारे पर एकत्रित होकर पर अस्ताचलगामी और दूसरे दिन उदीयमान सूर्य को अर्ध्य समर्पित किया जाता है। इस दिन छठ का प्रसाद  ठेकुआ, चावल के लड्डू, साँचा और विभिन्न प्रकार के फल सम्मलित किए जाते हैं।
छठ पूजा के त्यौहार का दृश्य बड़ा मनमोहक होता है। सभी लोग इसे एक उत्सव की तरह मनाते है। नदी किनारे जैसे मेला सा लग जाता है। महिलाएं छठ पूजा के सुहाने गीत गातीं है। व्रती अपने पूर्ण श्रृंगार के साथ-साथ अपनी नाक से लेकर पूरी मांग में पीला सिंदूर भरती हैं। सिंदूर लगाने का यह तरीका भी इस व्रत की एक बहुत बड़ी पहचान है।

छठ पूजा का इतिहास

इस महापर्व की शुरुआत कैसे हुई और किसने इस पर्व को शुरु किया इस विषय में अलग-अलग मान्यताएं हैं।

एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।

महाभारत काल में छठ

मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है।

एक और प्रचलित कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया। लोक परंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी।

मार्कण्डेय पुराण में छठ पर्व का वर्णन

पुराण में इस बारे में एक और कथा प्रचलित है। एक अन्य कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियवद की पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर शमशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि ‘सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो’। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी। मार्कण्डेय पुराण में छठ पर्व के बारे में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

पवित्रता और सादगी के साथ मनाये जाने वाला पर्व

छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न विशाल पंडालों और भव्य मंदिरों की जरूरत होती है न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की। बिजली के लट्टुओं की चकाचौंध, पटाखों के धमाके और लाउडस्पीकर के शोर से दूर यह पर्व बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद, और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।

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