महिलाएं को अपनी जिंदगी में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं। किशोरावस्था से लेकर मेनोपाॅज तक वह बेटी, मां और सास की भूमिका निभाती हैं. इस दौरान उनके शरीर में भी काफी बदलाव आते हैं. इससे कई तरह की समस्याएं भी होती हैं, जिनका ख्याल रख कर सुखमय जीवन जीया जा सकता है।
किशोरावस्था की समस्याएं
प्यूबर्टी में पहुंची किशोरियों को पहली बार होनेवाले मासिक धर्म में कई समस्याएं हो सकती हैं। अमूमन इस उम्र में शारीरिक बदलावों को समझने में उन्हें परेशानी होती है। पहली माहवारी में रक्तस्राव बहुत ज्यादा हो सकता है। दरअसल, शुरुआत में 1-2 वर्ष तक ओवरी में एग-फाॅर्मेशन या एग-रिलीज नहीं होता, केवल रक्तस्राव होता है, इसलिए शुरू में ब्लीडिंग ज्यादा होती है। साथ ही मासिक चक्र में अनियमितता देखने को मिलती है। नॉर्मल मासिक चक्र जहां 25-28 दिन का होता है, वहीं इस उम्र में कभी पीरियड्स 3-4 महीने में या फिर 15 दिन में भी आ जाते हैं। पीरियड्स शुरू होने पर तेज दर्द होना बहुत नाॅर्मल प्रक्रिया है। इस दौरान बच्चेदानी सिकुड़ती है और उसमें से ब्लड बाहर आता है, जिसकी वजह से दर्द होता है। इससे घबराने की जरूरत नहीं है, समय के साथ धीरे-धीरे दर्द कम होता जाता है।
- एनीमिया का शिकार होना
किशोरियों की सेहत पर अधिक रक्तस्राव और मासिक चक्र में अनियमितता का असर पड़ता है। उनके शरीर में खून की कमी हो जाती है और वे एनीमिया की शिकार हो जाती हैं। वे हीमोग्लोबिन के मानक स्तर (12×12) को भी प्राप्त नहीं कर पातीं, यानी 12 वर्ष की उम्र में उनका हीमोग्लोबिन 12 नहीं होता। खानपान की गलत आदतों की वजह से वैसे ही किशोरियों में न्यूट्रीशंस की कमी पायी जाती है। - पॉलिसिस्टिक ओवरी डिजीज (पीसीओडी)
कई बार फिजिक काॅन्शियस होने की वजह से भी किशोरियां डाइट पूरी तरह नहीं लेतीं, या फिर उनका झुकाव फास्ट फूड और हाइ कैलोरी डाइट के प्रति ज्यादा होता है। इससे मासिक चक्र में अनियमितता, वजन बढ़ना, चेहरे व शरीर पर अनचाहे बाल जैसे पीसीओडी सिंड्रोम देखने को मिलते हैं। - थायराॅयड की समस्या
मासिक चक्र में अनियमितता की वजह से किशोरावस्था में थायराॅयड की समस्या भी देखने को मिलती है। थायराॅयड ग्रंथि द्वारा कम हार्माेन्स बनाने पर हाइपोथायराॅयड और ज्यादा बनाने पर हाइपरथायराॅयड हो जाता है, जिनसे मोटापा, अनचाहे बाल आना, बाॅडी में खासतौर पर पैरों में सूजन, थकावट रहना, चिड़चिड़ापन जैसी कई समस्याएं देखने को मिलती हैं।किशोरियां इन बातों का रखें ध्यान
- स्वास्थ्य को लेकर किशोरियों की सही काउंसेलिंग जरूरी है, ताकि जिंदगी की शुरुआत में आनेवाली हेल्थ प्राॅब्लम्स का सामना करने के लिए वे तैयार रहें।
- इसके लिए बड़ों को उन्हें अपने विश्वास में लेकर इस नैचुरल प्रोसेस के प्रति प्यार से समझाना चाहिए और मासिक चक्र के दौरान भी रेगुलर एक्टिविटीज करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
- उन्हें जंक या फास्ट फूड के बजाय न्यूट्रीशन्स से भरपूर हेल्दी डाइट लेने की हैबिट डालनी चाहिए।
- पीरियड्स के दौरान अगर उन्हें ज्यादा दर्द हो, तो डॉक्टर की सलाह से पैन किलर टैबलेट जरूर लेनी चाहिए।
युवावस्था में होनेवाली परेशानी और लेट मैरेज का चलन
आज के कैरियर ऑरिएंटेड दौर में लेट मैरिज का चलन बढ़ता जा रहा है, जिससे महिलाओं को कई बार इंफर्टिलिटी या कंसीव करने में दिक्कत आती है। फैमिली प्लानिंग के तहत 30-35 साल के बीच पहले बच्चे की प्लानिंग करना, कभी-कभी मां-बच्चे दोनों के लिए खतरनाक हो सकता है। इस उम्र तक आते-आते महिला की प्रजनन दर कम हो जाती है। साथ ही इस उम्र में महिलाएं थायराॅयड, डायबिटीज, हाइपर टेंशन जैसी क्राॅनिक डिजीज की चपेट में आ जाती हैं, जिनका प्रभाव प्रेगनेंसी और बच्चे पर पड़ता है। कई बार इंफेक्शन की वजह से फिलोपियन ट्यूब में ब्लाॅक हो जाती है, जिससे भ्रूण यूटरस तक न जाकर फेलोपियन ट्यूब में ही ठहर जाता है। इसे एक्टोपिक प्रेगनेंसी कहते हैं, ऐसी स्थिति में जान को भी खतरा रहता है।
शादी के बाद की समस्याएं
शादी के बाद खासतौर पर इंटरकोर्स के बाद महिलाओं को अनेक तरह के इंफेक्शन या सेक्सचुली ट्रांसमीटेड डिजीज हो जाती हैं। इनमें यूटीआइ, पैल्विक इंफेक्शन, व्हाइट डिस्चार्ज प्रमुख हैं। उन्हें एचआइवी, हेपेटाइटिस बी जैसी डिजीज भी देखने को मिलती है। इनसे बचाव के लिए जरूरी है कि पर्सनल हाइजीन का पूरा ध्यान रखा जाये और इंटरकोर्स के दौरान पूरी सावधानी बरती जाये। महिलाओं का इलाज करने के साथ-साथ पुरुषों को भी जागरूक करना जरूरी है, ताकि भविष्य में किसी तरह की समस्या न हो।
मिडिल एज में होने वाली समस्याएं
35-40 उम्र की महिलाओं को पीरियड्स ज्यादा होने लगते हैं, असहनीय दर्द रहता है। इसके कई कारण हो सकते हैं- ओवरी में हॉर्मोन्स में बदलाव, यूटरस में फ्रायब्राॅयड रसोलियां होना, गर्भाशय ग्रीवा में सर्वाइकल कैंसर होना आदि। ऐसी स्थिति में महिलाओं को डाॅक्टर से कंसल्ट करना चाहिए। लेप्रोस्कोपी, लेजर, रेडियो थेरेपी या रेडिएशन थेरेपी के जरिये इनका समुचित उपचार किया जाता है।